Monday, September 12, 2011

बाल - मनोविज्ञान

धीरज, धर्म, मित्र अरू नारी
आपत काल परखिए चारी ।।
विपत्ति आने पर ही हम अपने धैर्य की, धर्म की, मित्र की और पत्नि की परख कर पाते हैं। हमारा संपूर्ण जीवन अपने परिस्थितियों के साथ क्रिया प्रतिक्रिया करते हुए बीतता है। हमारे अंदर बीज रूप में विद्यमान गुण अनुकूल परिस्थितियां पाकर अंकुरित होते हैं और धीरे धीरे बढ़ कर पूर्ण छायादार वृक्ष बन जाते हैं। अगर हम अपनी आंतरिक शक्तियों का सदुपयोग करें तो हमारा जीवन कुंदन के समान निखर जाता है। और यदि हमनें अपने गुणों को नकारात्मक वृत्तियों से हार जाने दिया तो समझ लीजिए हम अपनी पहचान खो देते हैं।
हमारी पहचान

संस्कृत में धर्म शब्द का प्रयोग पहचान अर्थ में भी होता है। जैसे हम कहते हैं आग का धर्म हैगर्मी देना, प्रकाश देना और गति देना। अग्नि में रोशनी भी है, गर्माहट भी और वह भाप से रेल का इंजन और पानी के बड़े-बड़े जहाज़ भी चला सकती है। प्रत्येक वस्तु के अनेक गुण और धर्म होते हैं। मनुस्मृति में मनु महाराज ने मनुष्य का धर्म बताते हुए लिखा
धृति, क्षमा, दमोsस्तेयं, शौचमिन्द्रिय निग्रह।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकम् धर्मलक्षणम्।।
अर्थात धैर्य, दूसरो को क्षमा करना, अपने मन पर, विचारो पर, नियंत्रण होना, चोरी की भावना का होना, शारीरिक और मानसिक पवित्रता, इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण, अच्छी बुद्धि, सद्विद्या का ग्रहण करना, सत्य के मार्ग पर चलना और क्रोध करनायही मनुष्यता के दस लक्षण हैं। इन गुणों को अपनाकर हम सच्चे अर्थों में मनुष्य बनते हैं। यही वेद का आदेश है। मनुर्भवमनुष्य बनो।
वेदो का कहना है कि ईश्वर में बीज रूप में सभी गुण मनुष्य को दिए हैं। हमें केवल इन गुणों को अभ्यास के द्वारा पूर्ण रूप से विकसित करना है।
हमारा कार्यक्षेत्र
हमने अध्यापन कार्य अपनाया है। यह हमारी योग्यता और इच्छा के अनुकूल भी है। पर यहां पग पग पर हमारे धैर्य की परीक्षा होती है। कक्षा में 40 छोटे छोटे बालक बालिकाएं हमारे सामने हैं। हम उनका मार्ग दर्शन कर रहे हैं और वे भी बीज रूप में अपनी शक्तियों के साथ हमारे सामने हैं। हमें माली के समान उनकी शक्तियों, योग्यताओं को पूर्ण रूप से पल्लवित, पुष्पित होने का अवसर देना है। यह एक चुनौती है।
मार्गदर्शन का आधार
1.
हमें चाहिए कि हम बच्चो को सभी संभावनाओं से पूर्ण मानें। हम समझें कि सभी बालक-बालिकाओं में कुछ बनने की योग्यता है। कोई कोई विशेष गुण है। वह अपनी इन योग्यताओं का विकास चाहते हैं। हम उन्हे विकसित होने का पूर्ण वातावरण प्रदान करें और उनके गुणों की प्रशंसा करें।
2.
अच्छे कुशल माली के समानउन्हें स्वस्थ पोषण दें। माली पौधे को खाद पानी देता है। खर पतवार को पास उगने नहीं देता। धूप, अतिवृष्टि, अनावृष्टि से बचाता है। यदि डालियां इधर-उधर बढ़ रही हैं तो सुंदर रूप देने के लिए काट छांट भी करता है। हम भी विद्यार्थियों को स्वस्थ साहित्य पढ़ने को दें, बुराई से बचाएं, गंदे व्यवहार की निंदा करते हुए उन्हें उनसे दूर रखें। आप कहेंगे कि पेड़ तो जड़ पदार्थ हैकाटनें छांटने पर विरोध नही करता। और यह नन्हे-मुन्ने तो पूरे आफत का पिटारा होते हैं उन्हें कैसे समझाएं। उत्तर है बच्चों का मनोविज्ञान समझें।
3.
हम बच्चों का मनोविज्ञान समझें और अपना भी। इस बात को पूरी तरह समझ लें कि जैसे तेज़ रफ्तार से बहती नदी के प्रवाह को रोका नहीं जा सकताउसे केवल थोड़ा सा मोड़ दे सकते हैं। जैसे मनोविज्ञान में हम पढ़ते थे
YOU CANNOT CHECK THE EMOTIONS, YOU CAN ONLY SUBLIMATE IT...
हम बच्चों की भावनाओं को रोक नही सकते केवल दिशा दे सकते हैं। जैसे कोई बच्चा शैतानी कर रहा है या रो रहा है तो हम केवल डांट कर चुप नही करा सकतेउसे कोई काम दे दें ताकि उसका ध्यान उस शैतानी से हट जाए। कोई नई कहानी सुना कर, नई चीज़े दिखा कर परिस्थितियों को आकर्षक बना सकते हैं।
4.
प्रेरक बनें। अध्यापक का कार्य बच्चों को किसी विषय से संबंधित सूचनाओं का ख़ज़ाना नहीं बनाना है। हमें तो उसका व्यक्तित्व उभारना है। जैसे हम कहते हैं कि सूर्य हमारा प्रेरक है। एक बीज में वृक्ष बनने की योग्यता है, कलि में फूल बनने की योग्यता है, सूर्य अपनी किरणों से उन्हें विकसित होने की प्रेरणा देता है। इसीलिए सूर्य का नाम सविता है। हम अध्यापक भी इन बच्चो को खिलने का अवसर प्रदान करें। ये ऐमेटी के फूल भी हैं, माता-पिता के फूल भी हैं और भारत माता की बगिया के फूल भी हैं। उनकी योग्यता का विस्तार हो सके इसके लिए उन्हें उपयुक्त वातावरण प्रदान करें। उन्हें मानवीय गुणों को अपनाने के लिए भी प्रेरित करें। केवल विषय से संबंधित सूचनाओं का पिटारा बना दें। अन्यथा ज्ञान प्राप्त करके वे स्वार्थी भी बन सकते हैं। उन्हें सर्वभूत हिते रता: की भावना से काम करने की प्रेरणा दें।
5.
विद्यार्थियों को स्वयं उनके अंदर छिपी शक्तियों को पहचानने के योग्य बनाएं। यह ज़रूरी नहीं है कि पढ़ लिखकर सभी डॉक्टर या इंजीनियर ही बनेंवे खिलाड़ी भी बन सकते हैं और व्यापारी भी। वे गायक भी बन सकते हैं या चित्रकार भी। नेता, अभिनेता, सैनिक, आई एसकुछ भी बनना चाहें बन सकते हैं।
6.
कर्म के प्रति निष्ठाहम अपने कार्य को पूरी निष्ठा के साथ करें। कर्म ही धर्म हैइस भावना से करें। कुछ और बनना चाहते थे या करना चाहते थेनहीं कर पाएइसीलिए अध्यापन कार्य शुरू कर दिया और बेमन से पढ़ाने लगेंऐसा करें। ऐसा करने से हमारा असंतोष, हमारे व्यवहार में झलकेगा।
7.
नवीनता और तैयारीकक्षा में जाने से पूर्व हमेशा तैयारी के साथ जाएं। कुछ नए विचार साथ लेकर जाएं। नवीनता के लिए कभी आप पाठ स्वयं पढ़ कर सुनाना आरंभ करें तो कभी विद्यार्थियों से पढ़ने के लिए कहें। तो कभी बच्चों को उस विषय से संबंधित कुछ और जानकारी दें या किसी कविता की कुछ पंक्तियां सुना कर आप पाठ आरंभ कर सकते हैं। जैसे भोजन में नित्य नवीनता भोजन को नित्य अधिक आकर्षक और स्वादिष्ट बना देती हैएक सा खाना नीरस लगने लगता है ऐसे ही पढ़ाने का एक ही ढंगबच्चो को विषय से विमुख कर सकता है।
8.
बच्चो की भागीदारीबच्चो के ज्ञान में कुछ और जोड़ने के लिए उसमें उनकी भागीदारी भी होना ज़रूरी है। वो केवल श्रोता बनकर बेमन से सुनते रहें। वे भी सीखने में पूरे हिस्सेदार बनें। उन्हे पाठ में सक्रिय बनाईए। उन्हें जितना आता है उसे पहले वे स्पष्ट करें फिर उसके आगे आप बताईए। तब सुननें में उनका ज्यादा ध्यान लगेगा। अन्यथा वो अनमने ढंग से सुनेंगे। कभी कभी पाठ का अभिनय भी करा सकते हैं।
9.
अपने व्यवहार को आदर्श बनाएंबच्चे अपने बढ़ो का अनुकरण आरंभ से ही करने लगते हैं। बहुत सी शिक्षा इस अनुकरण प्रणाली से ही हम उन्हें दे सकते हैं। हम स्वयं सत्य का पालन करेंसब बच्चों को समान दृष्टि से देखें, निश्छल व्यवहार करें समय का पालन करेंतो यह गुण बच्चों में स्वत: जाएंगे। वे भी समय पर अपना कार्य पूर्ण कर के दिखाएंगे सबके साथ मित्रवत व्यवहार करेंगे।
10.
बच्चों के माता पिता से भी संपर्क रखेंबच्चो की समस्याओं को समझने सुलझाने में उनकी मदद करें। अध्यापक केवल अध्यापक नही मित्र भी होता है। जैसा कि शतपथ ब्राह्णण का वचन हैमातृमान् पित्रमान् आचार्यवान पुरुषो वेद अर्थात माता-पिता और आचार्य मिलकर बच्चे के व्यक्तित्व का निर्माण करते हैंउनका मार्गदर्शन करके उन्हें सही अर्थों में मनुष्य बनाते हैं। हम अपनी ज़िम्मेदारी समझें। काम को केवल मशीन की ही तरह पूरा करें, उसमें मानवीय सहृदयता का पुट रखें तो अवश्य ही विद्यार्थी का संतुलित विकास हो सकेगा।
11.
स्वाध्यायहम अपने को प्रज्वलित दीप के समान बनाए रखें। प्रतिदिन होने वाले परिवर्तनों से अपने को परिचित रखें। नए बच्चों की नई सोच से तालमेल बैठाएं। स्वयं अपने विषय की पुस्तकें पढ़ते रहें ताकि हमारा ज्ञान सदैव बढ़ता रहे और हम नए नए ढंग से विद्यार्थियों का ज्ञानवर्धन करते रहें।
अंत में शिक्षण-प्रशिक्षण और स्वाध्याय निरंतर चलते रहने वाली प्रक्रिया है। इसका प्रवाह बनाए रखें।

बच्चो का मनोविज्ञान समझना कोई आसान बात नहीं है | उनका स्वभाव .उनकी रुचियाँ और उनके शौक यदि हर माता पिता समझ ले तो बच्चों के दिल तक आसानी से पहुंचा जा सकता है | बहुत सी ऐसी बातें होती है जिनको समझने के लिए कई तरकीब ,कई तरह के मनोविज्ञानिक तरीके हैं जिस से बच्चो को समझ कर उनके स्वभाव को समझा जा सकता है | एक मनोवेज्ञानिक ने इसी आधार पर बच्चे के व्यक्तितव को समझने के लिए उनके लिखने के ढंग ,पेंसिल के दबाब और वह रंग करते हुए किस किस रंग का अधिक इस्तेमाल करते हैं ..के आधार पर विस्तार पूर्वक लिखा है ...माता पिता के लिए इस को जानना रुचिकर होगा ...

बच्चो को चित्रकला बहुत पसंद आती है | वह पेन्सिल हाथ में पकड़ते हो कुछ कुछ बनना शुरू कर देते हैं | इसी आधार पर कुछ बच्चो के समूह को एक बड़ा कागज और उस पर चित्र बनाने को कहा गया ..कुछ बच्चो ने तो पूरा कागज ही भर दिया ..कुछ ने आधे पर चित्र बनाये और कुछ सिर्फ थोडी सी जगह पर चित्र बना कर बैठ गए | इसी आधार पर यह निष्कर्ष निकला कि जो बच्चे पूरा कागज भर देते हैं वह अक्सर बहिर्मुखी होते हैं |ऐसे बच्चे उत्साही और दूसरे लोगों से बहुत जल्दी घुल मिल जाते हैं .इस तरह के बच्चे स्वयम को अच्छे से अभिव्यक्त कर पाते हैं और अक्सर मनमौजी स्वभाव के और कम भावुक होते हैं |

आधा कागज इस्तेमाल करने वाले बच्चे अधिकतर अन्तर्मुखी होते हैं |ऐसे बच्चे बहुत कम मित्र बनाते हैं ,लेकिन जिसके साथ दोस्ती करते हैं उसके साथ लम्बे समय तक दोस्ती निभाते हैं | इस तरह के बच्चो में अधिक सोच विचार करने की आदत होती है |
बिलकुल छोटा चित्र बनाने वाले बच्चे में आत्मविश्वास की कमी होती है और यह निराशा वादी होते हैं इनका आत्मविश्वास बढाने के लिए प्रोत्साहन बढाना बहुत जरुरी है ...
पेंसिल का दबाब
बच्चा आपका पेंसिल कैसे पकड़ता है किस तरह से उसको दबाब डाल कर लिखता है ,इस से भी उसके स्वभाव को जाना जा सकता है|यदि आपका बच्चा किसी रेखा या बिंदु पर पेंसिल का अधिक दबाब डालता है तो इसका अर्थ है कि वह अपनी मांसपेशियों को अधिक इस्तेमाल कर रहा है और वह किसी तनाव में है जिस से वह मुक्त होना चाहता है | यदि बच्चे ने कोई मानव आकृति बनायी है और उस में उस आकृति की बाहें ४५ डिग्री से अधिक ऊपर उठी हुई हैं या अन्दर की और मुडी हैं तो बच्चे का ध्यान आपको अधिक रखना होगा यह उसकी अत्यधिक उत्सुकता कई निशानी है |

बच्चे का लिखने के ढंग से भी आप उसके स्वभाव को परख सकते हैं | जैसे लिखते वक़्त बच्चे ने चित्र में उन स्थानों पर तीखे कोनों का इस्तेमाल किया है जहाँ हल्की गोलाई होनी चाहिए थी तो यह उस बच्चे की आक्रामकता की सूचक है| यदि यह आक्रमकता उसके ताजे चित्रों में दिख रही तो उसके पुराने बनाए चित्र और शैली देखे इस से आप जान सकेंगे कि घर में ऐसा क्या घटित हुआ है जो आपके बच्चे के मनोभाव यूँ बदले हैं | अक्सर इस तरह से बदलाव दूसरे बच्चे के आने पर पहले बच्चे में दिखाई देते हैं उसको अपने प्यार में कमी महसूस होती है और वह यूँ आकर्मक हो उठता है |
रंगों के इस्तेमाल से
बच्चे किस तरह के रंगों का इस्तेमाल अधिक करते हैं यह भी मनुष्य के स्वभाव की जानकारी देता है ..लाल रंग अधिक प्रयोग करने वाले बच्चे मानसिक तनाव से गुजर रहे होते हैं
नीले रंग का प्रयोग करने वाले बच्चे धीरे धीरे परिपक्व होने की दिशा मेंबढ़ रहे होते हैं और अपनी भावनाओं परनियंत्रण पाने की कोशिश में होते हैं ,पर यदि यह नीला रंग अधिक से अधिक गहरा दिखता है तो यह भी आक्रमकता का सूचक है ऐसे में बच्चे के मन में छिपी बात को समझने की कोशिश करनी चाहिए
पीला रंग इस्तेमाल करने वाले बच्चे अधिकतर उत्साही बाहिर्मुखी और अधिक भावुक होते हैं ऐसे बच्चे दूसरो अपर अधिक निर्भर रहते हैं और हमेशा दूसरो का ध्यान अपनी और आकर्षित करने कि कोशिश में रहते हैं |हरा रंग इस्तेमाल करने वाले बच्चे शांत स्वभाव के होते हैं और अक्सर उनके स्वभाव में नेतर्त्व के गुण पाए जाते हैं |
काला रंग या गहरा बेंगनी रंग इस्तेमाल करने वाले बच्चे को आपकी सहायता चाहिए |यह रंग बच्चे में दुःख और निराशा का प्रतीक है |

माता-पिता का एक मनोविज्ञान होता है सभी माता-पिता एक समय बाद बच्चों से प्रेम मांगने लगते हैं। प्रेम कभी मांगकर नहीं मिलता है और जो प्रेम मांगकर मिले उसका कोई मूल्य नहीं होता।

एक बात और समझ लें कि यदि माता-पिता बच्चों से प्रेम करें तो वह बड़ा स्वाभाविक है, सहज है, बड़ा प्राकृतिक है, क्योंकि ऐसा होना चाहिए। नदी जैसे नीचे की ओर बहती है, ऐसा माता-पिता का प्रेम है। लेकिन बच्चे का प्रेम माता-पिता के प्रति बड़ी अस्वाभाविक घटना है। ये बिल्कुल ऐसा है जैसे पानी को ऊपर चढ़ाना। कई मां-बाप यह सोचते हैं कि हमने बच्चे को जीवनभर प्रेम दिया और जब अवसर आया तो वह हमें प्रेम नहीं दे रहा, वह लौटा नहीं रहा।

इसमें एक सवाल तो यह है कि क्या उन्होंने अपने मां-बाप को प्रेम दिया था? यदि आप अपने माता-पिता को प्रेम, स्नेह और सम्मान नहीं दे पाए तो आपके बच्चे आपको कैसे दे सकेंगे? इसलिए हमारे यहां सभी प्राचीन संस्कृतियां माता-पिता के लिए प्रेम की के स्थान पर आदर की स्थापना भी करती हैं। इसे सिखाना होता है, इसके संस्कार डालने होते हैं, इसके लिए एक पूरी संस्कृति का वातावरण बनाना होता है।

जब बच्चा पैदा होता है तो वह इतना निर्दोष होता है, इतना प्यारा होता है कि कोई भी उसको स्नेह करेगा, तो माता-पिता की तो बात ही अलग है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होने लगता है, हमारा प्रेम सूखने लगता है। हम कठोर हो जाते हैं। बच्चा बड़ा होता है, अपने पैरों पर खड़ा होता है तब हमारे और बच्चे के बीच एक खाई बन जाती है। अब बच्चे का भी अहंकार बन चुका है वह भी संघर्ष करेगा, वह भी प्रतिकार करेगा, उसको भी जिद है, उसका भी हठ है। इसलिए प्रेम का सौदा करें इसे सहज बहने दें।

बाल विकास (या बच्चे का विकास), मनुष्य के जन्म से लेकर किशोरावस्था के अंत तक उनमें होने वाले जैविक और मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों को कहते हैं, जब वे धीरे-धीरे निर्भरता से और अधिक स्वायत्तता की ओर बढ़ते हैं. चूंकि ये विकासात्मक परिवर्तन काफी हद तक जन्म से पहले के जीवन के दौरान आनुवंशिक कारकों और घटनाओं से प्रभावित हो सकते हैं इसलिए आनुवंशिकी और जन्म पूर्व विकास को आम तौर पर बच्चे के विकास के अध्ययन के हिस्से के रूप में शामिल किया जाता है. संबंधित शब्दों में जीवनकाल के दौरान होने वाले विकास को संदर्भित करने वाला विकासात्मक मनोविज्ञान और बच्चे की देखभाल से संबंधित चिकित्सा की शाखा बालरोगविज्ञान (पीडीऐट्रिक्स)शामिल हैं. विकासात्मक परिवर्तन, परिपक्वता के नाम से जानी जाने वाली आनुवंशिक रूप से नियंत्रित प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप या पर्यावरणीय कारकों और शिक्षण के परिणामस्वरूप हो सकता है लेकिन आम तौर पर ज्यादातर परिवर्तनों में दोनों के बीच का पारस्परिक संबंध शामिल होता है.

बच्चे के विकास की अवधि के बारे में तरह-तरह की परिभाषाएँ दी जाती हैं क्योंकि प्रत्येक अवधि के शुरू और अंत के बारे में निरंतर व्यक्तिगत मतभेद रहा है.

फॉर इन्फैन्ट मेंटल हेल्थ जैसे संगठन शिशु शब्द का इस्तेमाल एक व्यापक श्रेणी के रूप में करते हैं जिसमें जन्म से तीन वर्ष तक की उम्र के बच्चे शामिल होते हैं; यह एक तार्किक निर्णय है क्योंकि शिशु शब्द की लैटिन व्युत्पत्ति उन बच्चों को संदर्भित करती है जो बोल नहीं पाते हैं.

बच्चों के इष्टतम विकास को समाज के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है और इसलिए बच्चों के सामाजिक, संज्ञानात्मक, भावनात्मक, और शैक्षिक विकास को समझना जरूरी है. इस क्षेत्र में बढ़ते शोध और रुचि के परिणामस्वरूप नए सिद्धांतों और रणनीतियों का निर्माण हुआ है और इसके साथ ही साथ स्कूल सिस्टम के अंदर बच्चे के विकास को बढ़ावा देने वाले अभ्यास को विशेष महत्व भी दिया जाने लगा है. इसके अलावा कुछ सिद्धांत बच्चे के विकास की रचना करने वाली अवस्थाओं के एक अनुक्रम का वर्णन करने की भी चेष्टा करते हैं.

2 comments:

  1. muze aapake vichar bohat aache lage dhanyvad.

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  2. Very nice sir
    Your way is powerfull
    I agree with you.

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