Monday, August 6, 2012


International Centre for Distance Education and Open Learning (ICDEOL) Himachal Pradesh University Summer Hill, Shimla - 171005



Chaman Lal Banga           Email: chamanbanga80@gmail.com
Assistant Professor                   Mobile: 8894552177; 9318892481; 9817239318.
Department of Education         Office: Room No, 202; 0177-2830445(Exchange), (5443).
बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर का जीवन दर्शन एवं राष्ट्रीय चिंतन
चमन लाल बंगा , सहायक आचार्य , शिक्षा विभाग  (इक्डोल) हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय  समर हिल , शिमला०५. ईमेल: chamanbanga80@gmail.com

प्रस्तावना

दे के संविधान को निर्मित करने वाले तात्कालिक प्रभावशाली राजनीतिज्ञ बुद्धिजीवियों में मात्र एक ही ऐसा विरला था जिसे वास्तव में देश के माटी, देश की जनता, देश के कानून, देश की सीमाओं के हर हलचलों का ज्ञान था। जो जानता था कि ब्रिटिश हुकुमत की असंख्य शर्तों के बीच देश की प्रजातांत्रिक प्रणाली को किस बेहतर तरीके से स्थापित किया जा सकता है। उस व्यक्तित्व का नाम था बाबा भीमराव अंबेडकर. आजादी के कुछ वर्षो पश्चात सन 1962 में सियाचिन युद्ध के बादलों में हिन्दू चीनी भाई-भाई का एकता प्रेरक नारा गुम हो गया। चीन ने हठधर्मिता छल से तात्कालीक परिस्थितियों का भरपूर फायदा उठा भारत के मानसरोवर तिब्बत के  सुदूर  इलाकों को अपने कब्जे में ले लिया। इस युद्ध में यूपी जिला आजमगढ़ के आर्मी सूबेदार सौदागरसिंह ने केवल थ्री-नॉट-थ्री के बल पर दस चीनी सैनिकों को धराशाही कर दिया उनकी दस एसएसलार चीनी हथियार को अपने कंधे पर लाद क्षम्म क्षेत्र से मुख्यालय तक दस दिन की कठिन दुर्गम यात्रा की जिसके कारण भारत को आयुध विज्ञान में नए अविष्कार करने का मौका मिला वहीं वीर सूबेदार सौदागरसिंह को उनके इस दुस्साहसिक कार्य पर देश के पहले वीर चक्र उपाधि से तात्कालीक राष्ट्रपति श्री सर्व पल्ली राधाकृष्णन ने सम्मानित किया। चीन की  इस घिनौने हरकत को देख अंबेडकर ने दूरदृष्टि सोचते हुए तिब्बत और धार्मिक जनता पर अग्र भविष्य में चीनियों के अत्याचार का मर्म पहले समझ लिया। श्री अंबेडकर समझ चुके थे कि अग्र भविष्य में चीनी साम्राज्य अरूणाचल, तिब्बत, मानसरोवर के साथ साथ पूरे भारत को निगल लेना चाहता है और तात्कालीक परिस्थितियों में भारत का नेतृत्व करने वाली पार्टी में कोई भी ऐसा व्यक्तित्व नहीं था जो चीन के आधुनिक हथियार तैयारी और हौसले को परास्त कर पाता। ऐसे में मात्र बाबा भीवराव अंबेडकर ने ही अपने दलितों, महादलितों को तिब्बत की तरफ ध्यानाकर्षण कराया। ताकि अग्र भविष्य में चीन अपने गलत इरादों को अमलीजामा पहनाने की कोशिश करे तो भारत का रहने वाला बहुसंख्यक दलित धर्म के नाम पर अंबेडकर के नाम पर तिब्बत के लिए आहूत हो सके। जिन्हें सत्ता और प्रशासन की उचित से उचित सुविधाएं प्रदान की जा रही है जो अंबेडकर के सपनों में बसने वाले भारत को साकार रूप दे सकते हैं जो तिब्बत की सीमाओं पर चीनी साम्राज्य द्वारा हो रहे धार्मिक बलात्कार और अमूल्य भूमि पर कब्जे को मुंह तोड़ जवाब दे सकते हैं यह वहीं युवा है जो अंबेडकर के मानस पुत्र हैं जिनके जागने मात्र से देश का एक विशेष हिस्सा जहां सुरक्षित होगा वहीं तिब्बत का भारतीय नागरिक अपने बौद्धिस्ट धर्म धर्म गुरू की लाज बचा पाएगा। 2014 तक भारत के हर शाखा को मजबूत करना होगा। अंबेडकर के गहरे विचारों कार्यो को वास्तविक धरा पर उकेराना होगा नहीं तो पत्थर पूजने वाले देश में मुर्खो के भगवान बाबा भीमराव अंबेडकर कहलाएंगे कि युग पुरूष। 


भारतीय संविधान की रचना में महान योगदान देने वाले डाक्टर भीमराव अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 को हुआ था. डाक्टर भीमराव एक भारतीय विधिवेत्ता होने के साथ ही बहुजन राजनीतिक नेता और एक बौद्ध पुनरुत्थानवादी भी थे. उन्हें बाबासाहेब के नाम से भी जाना जाता है. इनका जन्म एक गरीब अस्पृश्य परिवार मे हुआ था. बाबासाहेब आंबेडकर ने अपना सारा जीवन हिंदू धर्म की चतुवर्ण प्रणाली, और भारतीय समाज में सर्वव्यापित जाति व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष में बिता दिया. हिंदू धर्म में मानव समाज को चार वर्णों में वर्गीकृत किया है. उन्हें बौद्ध महाशक्तियों के दलित आंदोलन को प्रारंभ करने का श्रेय भी जाता है. मुंबई में उनके स्मारक पर हर साल लगभग पांच लाख लोग उनकी वर्षगांठ (14 अप्रैल) और पुण्यतिथि (6 दिसम्बर) पर उन्हे अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए इकट्ठे होते हैं. डाक्टर भीमराव रामजी आंबेडकर ,  एक भारतीय विधिवेत्ता थे। वे एक बहुजन राजनीतिक नेता, और एक बौद्ध पुनरुत्थानवादी होने के साथ साथ, भारतीय संविधान के मुख्य वास्तुकार भी थे। उन्हें बाबासाहेब के नाम से भी जाना जाता है। इनका जन्म एक गरीब अस्पृश्य परिवार मे हुआ था। बाबासाहेब आंबेडकर ने अपना सारा जीवन हिंदू धर्म की चतुवर्ण प्रणाली, और भारतीय समाज में सर्वव्यापित जाति व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष में बिता दिया। हिंदू धर्म में मानव समाज को चार वर्णों में वर्गीकृत किया है। उन्हें बौद्ध महाशक्तियों के दलित आंदोलन को प्रारंभ करने का श्रेय भी जाता है। बाबासाहेब अम्बेडकर को भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया है, परन्तु बहुत देरी के बाद , जो भारत का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार है। उनका परिवार मराठी था और वो अंबावडे नगर जो आधुनिक महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले मे है, से संबंधित था। वे हिंदू महार जाति से संबंध रखते थे, जो अछूत कहे जाते थे और उनके साथ सामाजिक और आर्थिक रूप से गहरा भेदभाव किया जाता था। अम्बेडकर के पूर्वज लंबे समय तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कार्यरत थे, और उनके पिता,भारतीय सेना की मऊ छावनी में सेवा में थे और यहां काम करते हुये वो सूबेदार के पद तक पहुँचे थे। उन्होंने मराठी और अंग्रेजी में औपचारिक शिक्षा की डिग्री प्राप्त की थी। उन्होने अपने बच्चों को स्कूल में पढने और कड़ी मेहनत करने के लिये हमेशा प्रोत्साहित किया।
स्कूली पढ़ाई में सक्षम होने के बावजूद आंबेडकर और अन्य अस्पृश्य बच्चों को विद्यालय मे अलग बिठाया जाता था और अध्यापकों द्वारा तो ध्यान ही दिया जाता था, ही कोई सहायता दी जाती थी। उनको कक्षा के अन्दर बैठने की अनुमति नहीं थी, साथ ही प्यास लगने कोई ऊँची जाति का व्यक्ति ऊँचाई से पानी उनके हाथों पर पानी डालता था, क्योंकि उनको तो पानी, ही पानी के पात्र को स्पर्श करने की अनुमति थी। लोगों के मुताबिक ऐसा करने से पात्र और पानी दोनों अपवित्र हो जाते थे। आमतौर पर यह काम स्कूल के चपरासी द्वारा किया जाता था जिसकी अनुपस्थिति में बालक आंबेडकर को बिना पानी के ही रहना पड़ता था।
8 अगस्त, 1930 को एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान अम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा, जिसके अनुसार शोषित वर्ग की सुरक्षा उसके सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने मे है।

सन्‌ 1917 में लंदन जाकर उन्होंने उर्थशास्त्र के लिये लंदन स्कूल ऑव इकॉनामिक्स ऐंड पोलिटिकल साईंस में और कानून के लिये ग्रेज इन में अपना नाम दाखिल कराया।

मुंबई वापस आने पर वे बड़ौदा में सयाजीराव महाराज से मिले, महाराजा ने उन्हें मिलिटरी सेक्रेटरी के पद पर नियुक्त किया।

बंबई में आकर डॉ. अंबेडकर ने एक 'दि स्माल होल्डिंग्स इन इंडिया ऐंड देअर रेमिडिज' नाम की एक पुस्तक प्रकाशित की। उन्होंने अपने जीवन का एकमात्र ध्येय हिंदू समाज के अन्याय तथा अत्याचार का प्रतिकार करके अस्पृश्योद्धार करना निश्चित किया। जूलाई 1918 मतदान हक के विषय को लेकर साउथ बरो कमिशन के पास निवेदन पेश किया।

नवंबर, 1918 में डॉ. अंबेडकर सिडेनहम कालेज ऑव कॉमर्स ऐंड इकॉनामिक्स, बंबई में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर नियुक्त हुए। जून, 1921 में लंदन यूनिवर्सिटी ने आपके लिखे हुए, 'प्रॉर्विशियल डिसेंट्रलाइजेशन ऑव इंपीरियल फायनांस इन ब्रिटिश इंडिया' नामक प्रबंध एम. एस. सी. (अर्थशास्त्र) की पदवी देने के लिये स्वीकार किया

मार्च 1923 में 'दि प्रॅब्लेम ऑव दि रुपी इट्स ऑरिजिन ऐंड इट्स साल्यूशश' नामक प्रबंध लिखने पर उन्हें डॉक्टर ऑव सायंस की डिग्री प्रदान की गई। यह प्रबंध लंडन के पी. एन. किंग ऐंड कंपनी ने दिसंबर 1923 में प्रकाशित किया। इसे थैकर ऐंड कंपनी ने 1947 में 'हिस्ट्री ऑव इंडियन करेंसी ऐंड बैंकिंग वाल्यूम' नाम से प्रकाशित किया।

जून, 1923 में आपने बंबई हाईकोर्ट जूडिकेचर में बैरिस्टरी करना प्रारंम्भ किया। अपने अछूतोद्धार आंदोलन का श्रीगणेश आपने 20 जुलाई 1924 को बंबई में बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना से किया। अछूत वर्ग में शिक्षा का प्रसार करने के लिये छात्रालय की स्थापना करना, सांस्कृतिक विकास, वाचनालय तथा अभ्यास केंद्र चलाना, औद्योगिक तथा कृषि स्कूल खोलना, अस्पृश्यता निवारण के आंदोलन को आगे बढ़ाना, इस प्रकार का उनका कार्यक्रम था।

1928 में इंडियन स्टेच्यूटरी कमिशन (सायमन कमिशन) के सामने निवेदन तथा साक्ष्य पेश किए, जून में बंबई में गवर्नमेंट लॉव कालेज में प्रोफेसर हुए और अगस्त में दलित जाति शिक्षण समिति की स्थापना की।

2 मार्च, 1930 को ही डॉ. अंबेडकर ने नासिक के कालाराम मंदिर में अछूतों के प्रवेश के लिये सत्याग्रह शुरू किया। दिसंबर में राउंड टेबुल कांफरेंस (गोल मेज परिषद्) के प्रतिनिधि नियुक्त हुए।

रैम्जे मैकाडॉनल्ड की अध्यक्षता में गोलमेज परिषद् प्रारंभ हुई। डॉ. अंबेडकर ने हिंदुस्तान के दलित लोगों की ओर से कहा, 'हमारी जनसंख्या हिंदुस्तान की जनसंख्या का पाँचवा भाग है, और इंग्लैंड या फ्रांस की जनसंख्या के बराबर है। परंतु हमारे इन अछूत भाइयों की स्थिति गुलामों से भी बदतर है।' डॉ. अंबेडकर ने दलित जाति के राजनीतिक संरक्षण की योजना का स्मारक पत्र तैयार करके अल्पमत उपसमिति को पेश किया। इसमें पृथक निर्वाचन संघ तथा सुरक्षित सीटों की माँग की गई थी, जो आगे चलकर महात्मा गाँधी अंबेडकर संघर्ष का कारण हुआ।

15 अगस्त 1931 को महात्मा गांधी तथा डॉ. अंबेडकर के बीच अछूतोद्धार की चर्चा हुई, लेकिन कोई फैसला नहीं हुआ और झगड़ा बना रहा। 1 सितंबर, 1931 को दूसरी गोलमेज परिषद् में भी पार्टी के नेताओं ने अपने-अपने विचार रखे लेकिन किसी का भी समाधान नहीं हुआ और महात्मा गांधी तथा डॉ. अंबेडकर में मतभेद बना रहा। 1 दिसंबर, 1931 को दूसरी गोलमेज परिषद् समाप्त हुई। सांप्रदायिक निर्णय करने का अधिकार ब्रिटिश प्रधान मंत्री को दिया गया।

ब्रिटिश प्रधान मंत्री ने जब सांप्रदायिक निर्णय की घोषणा की तो उसमें दलित जातियों को पृथक्निर्वाचन का अधिकार मिला और साथ ही आम निर्वाचन में भी मत देने तथा उम्मीदवारी करने का अधिकार उनको दिया गया। यरवड़ा जेल में डॉ. अंबेडकर से महात्मा गांधी की बात हुई। काफी वैचारिक संघर्ष और जयकर, सप्रू, रामगोपालाचार्य आदि नेताओं की चर्चा के बाद 24 सितंबर को यरवडा करार अर्थात पूना पैक्ट स्वीकार किया गया और 26 सितंबर को गांधी जी ने उपवास समाप्त किया

1932-34 ज्वांइट पार्लिमेंटरी कमिटी ऑन इंडियन कांस्टिट्यूशनल रिफॉर्म के सभासद तथा जून 1935 में गवर्नमेंट लॉ कालेज के आचार्य तथा जूरिसप्रूडेंस के प्रोफेसर नियुक्त हुए।

डॉ. अंबेडकर की धर्मांतर की घोषणा से भारत के सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक क्षेत्र में सनसनी सी फैल गई। माहात्मा गांधी, काँग्रेस के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्रप्रसाद और अन्य नेताओं ने दु: प्रकट किया। मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध धर्मों के प्रतिनिधियों ने उन्हें अपने-अपने धर्म में आने का आग्रहपूर्वक निमंत्रण दिया।

दिसंबर, 1940 में 'थॉट्स ऑफ़ पाकिस्तान' ग्रंथ प्राकशित किया। अप्रैल, 1942 को नागपुर में आल इंडिया शेड्यूलड कास्ट्स फेडरेशन की स्थापना की और जुलाई, 1942 में वायसराय की एक्जिक्यूटिव कौंसिल में श्रम मंत्री के पद पर पहुँचे।

जून में 'ह्वाट काँग्रेस ऐंड गांधी डिड टु दि अनटचेबुल्स' (कांग्रेस और महात्मा गांधी ने अछूतों के लिये क्या किया) ग्रंथ का प्रकाशन किया।

9 दिसंबर, 1946 को डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा की अध्यक्षता में संयुक्त विधान परिषद् का अधिवेशन प्रारंभ हुआ। 11 दिसंबर, 1946 को सर्वसम्मति से डॉ. राजेंद्र प्रसाद विधान परिषद के अध्यक्ष चुने गए। डॉ. अंबेडकर ने विधान परिषद् के सामने अपना वैधानिक दृष्टिकोण पेश करने के लिये एक स्मरणपत्र तैयार किया जो स्टेट ऐंड माइनॉरिटी, अर्थात्राज्य और अल्पसंख्यकों को सुरक्षित स्थान दिलवाने के विषय में है।

15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ। विधान परिषद् ने विधान का  मसौदा बनाने के लिये एक समिति नियुक्त की, जिसके अध्यक्ष विधान शास्त्र के प्रकांड पंडित डॉ. अंबेडकर ही बनाए गए। उन्होंने 4 नंवबर, 1948 को विधान का मसौदा, जिसमें 8 सूचियाँ और 315 धाराएँ थीं, विधान सभा में पेश किया। अधिकांश सदस्यों ने डॉ. अंबेडकर के परिश्रम तथा विद्वत्ता की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। 1950 तक विधान तैयार करके भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्रप्रसाद को समर्पित किया। कोलंबिया युनिवर्सिटी ने 5 जून, 1952 को विधानशास्त्रज्ञ डॉ. अंबेडकर को एल.-एल. डी. की डिग्री देकर सम्मानित किया।

डॉ. अंबेडकर ने दि अनटचेबुल्स नामक प्रबंध (अस्पृश्यों संबंधी प्रश्न) और महाराष्ट्र भाषावर प्रांतरचना नाम की पुस्तक 'धार कमीशन को सादर समर्पित' की।

दिसंबर, 1950 में कोलंबो विश्व बौद्ध परिषद् के अध्यक्ष हुए। जुलाई, 1951 में भारतीय बौद्ध जनसंघ की स्थापना की। डॉ. अंबेडकर ने सितंबर, 1951 में मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया।

डॉ. अंबेडकर ने 14 अक्टूबर, 1956 को नागपुर में धर्मांतरण   की प्रतिज्ञा पूर्ण की।

बर्मा के 80 वर्षीय वृद्ध बौद्ध भिक्षु भदंत चंद्रमणि महास्थविर ने उन्हें बौद्ध धर्म के अनुसार त्रिशरण पंचशील का उच्चारण करवा कर धर्म की दीक्षा दी।
हमें अपना रास्ता स्वयँ बनाना होगा और स्वयँ ... राजनीतिक शक्ति शोषितो की समस्याओं का निवारण नहीं हो सकती, उनका उद्धार समाज मे उनका उचित स्थान पाने मे निहित है। उनको अपना रहने का बुरा तरीका बदलना होगा.... उनको शिक्षित होना चाहिए .... एक बड़ी आवश्यकता उनकी हीनता की भावना को झकझोरने, और उनके अंदर उस दैवीय असंतोष की स्थापना करने की है जो सभी उँचाइयों का स्रोत है।
उन्होने अपनी पुस्तक हू वर शुद्राज़?’( शुद्र कौन थे?) के द्वारा हिंदू जाति व्यवस्था के पदानुक्रम में सबसे नीची जाति यानी शुद्रों के अस्तित्व मे आने की व्याख्या की. उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि किस तरह से अछूत, शुद्रों से अलग हैं। अम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक पार्टी को अखिल भारतीय अनुसूचित जाति फेडरेशन मे बदलते देखा, हालांकि 1946 में आयोजित भारत के संविधान सभा के लिए हुये चुनाव में इसने खराब प्रदर्शन किया। 1948 में हू वर शुद्राज़? की उत्तरकथा अनटचेबलस: थीसिस ऑन ओरिजन ऑफ अनटचेबिलिटी (अस्पृश्य: अस्पृश्यता के मूल पर एक शोध) मे अम्बेडकर ने हिंदू धर्म को लताड़ा।
हिंदू सभ्यता .... जो मानवता को दास बनाने और उसका दमन करने की एक क्रूर युक्ति है और इसका उचित नाम बदनामी होगा। एक सभ्यता के बारे मे और क्या कहा जा सकता है जिसने लोगों के एक बहुत बड़े वर्ग को विकसित किया जिसे... एक मानव से हीन समझा गया और जिसका स्पर्श मात्र प्रदूषण फैलाने का पर्याप्त कारण है?
अम्बेडकर इस्लाम और दक्षिण एशिया में उसकी रीतियों के भी आलोचक थे। उन्होने भारत विभाजन का तो पक्ष लिया पर मुस्लिम समाज मे व्याप्त बाल विवाह की प्रथा और महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की घोर निंदा की। उन्होंने कहा,
बहुविवाह और रखैल रखने के दुष्परिणाम शब्दों में व्यक्त नहीं किये जा सकते जो विशेष रूप से एक मुस्लिम महिला के दुःख के स्रोत हैं। जाति व्यवस्था को ही लें, हर कोई कहता है कि इस्लाम गुलामी और जाति से मुक्त होना चाहिए, जबकि गुलामी अस्तित्व में है और इसे इस्लाम और इस्लामी देशों से समर्थन मिला है। हालाँकि कुरान में वर्णित ग़ुलामों के साथ उचित और मानवीय व्यवहार के बारे में पैगंबर के विचार प्रशंसायोग्य हैं लेकिन, इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है जो इस अभिशाप के उन्मूलन का समर्थन करता हो। अगर गुलामी खत्म भी हो जाये पर फिर भी मुसलमानों के बीच जाति व्यवस्था रह जायेगी।
अंबेडकर की सामाजिक और राजनैतिक सुधारक की विरासत का आधुनिक भारत पर गहरा प्रभाव पड़ा है. स्वतंत्रता के बाद के भारत मे उनकी सामाजिक और राजनीतिक सोच को सारे राजनीतिक हलके का सम्मान हासिल हुआ. उनकी इस पहल ने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों मे आज के भारत की सोच को प्रभावित किया. उनकी यह सोच आज की सामाजिक, आर्थिक नीतियों, शिक्षा, कानून और सकारात्मक कार्रवाई के माध्यम से प्रदर्शित होती है. एक विद्वान के रूप में उनकी ख्याति उनकी नियुक्ति स्वतंत्र भारत के पहले कानून मंत्री और संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष के रूप में कराने मे सहायक सिद्ध हुयी. उन्हें व्यक्ति की स्वतंत्रता में अटूट विश्वास था और उन्होने समान रूप से रूढ़िवादी और जातिवादी हिंदू समाज और इस्लाम की संकीर्ण और कट्टर नीतियों की आलोचना की है. बाबासाहेब अंबेडकर को भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया है, जो भारत का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार है.

बाबा साहब ने दिया लोकतंत्र को बल

संविधान को लोकतंत्र की गीता कहा जाता है। भारत के संविधान के निर्माण में कई विधि विशेषज्ञों ने योगदान दिया जिसमें सर्वप्रमुख थे बाबा साहब अंबेडकर। उनके नेतृत्व में भारत के संविधान का निर्माण एक अतुलनीय उपलब्धि था जिस कारण उन्हें संविधानशिल्पी भी कहा जाता है। वह संविधान निर्माण की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। उन्होंने देश के संविधान के मसौदे में संविधान की प्रकृति को अत्यंत महत्वपपूर्ण स्थान दिया। संविधान की प्रकृति इस मामले में महत्वपूर्ण है कि यह केंद्र राज्य के बीच संबंधों को तय करती है।
संविधान राज्यों को जान बूझकर कम शक्ति प्रदान करता है। संविधान सृजन के समय यह बात साफ कही गई थी। नवंबर 1948 को सांविधानिक दस्तावेज के संकल्प को प्रस्तुत करते हुए डॉ. अंबेडकर ने कहा कि यदि कानून के किसी विद्यार्थी को संविधान दी जाए तो वह दो प्रश्न अवश्य करेगा कि संविधान के अंतर्गत किस प्रकार के शासन का (संसदीय या राष्ट्रपति) स्वरूप सोचा गया है और यह कि संविधान का स्वरूप या प्रकृति (ऐकिक या परिसंघीय) कैसा है? पहले प्रश्न के उत्तर में उन्होंने बताया कि हमारा शासन संसदीय होगा, क्योंकि लंबे समय से हम इसके आदी हैं। दूसरे प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि इस संवैधानिक प्रारूप में एक परिसंघीय संविधान परिकल्पित है, क्योंकि यह द्विस्तरीय शासन प्रणाली का सृजन कर रहा है। अंबेडकर ने स्वीकार किया कि जो दस्तावेज वह रख रहे हैं, वह संविधान के परिसंघीय ढांचे को प्रस्तुत करता है। किंतु रोचक बात यह है कि इतने बड़े संविधान में इस बात को कहीं भी साफ-साफ लिखा नहीं गया है और ही शब्द परिसंघ या परिसंघीयता का कोई जिक्र लिखित रूप में कहीं किया गया है। इसके विपरीत जिस पदावली का प्रयोग किया गया है उसमें अनु. एक में भारत को राज्यों का संघ बताया गया है। इतना ही नहीं राज्यों की सीमा, नाम क्षेत्र परिवर्तन करने के सिलसिले में अन्य संबंधित राज्यों की सम्मति आवश्यक थी, जबकि अब केवल उनका विचार जान लेना ही पर्याप्त है जिसे मानने के लिए केंद्र बाध्य नहीं हैं। प्रारूप समिति द्वारा संविधान के प्रथम दस्तावेज को स्वीकार नहीं किया गया जो बी.एन. राऊ ने तैयार किया था। ऐसे में किसी को भी अचरज हो सकता है कि एक तरफ तो अंबेडकर भारत को फेडरल संविधान देना चाहते थे, दूसरी तरफ भारत को राज्यों का फेडरेशन कहने की बजाय यूनियन कह रहे थे। यह अंतर्विरोध क्यों था? वस्तुत: यह अंबेडकर की दूरदर्शिता देश की एकता-अखंडता को सुनिश्चित करने लिए उठाया गया अनुपम उदाहरण है। राज्यों का परिसंघ पदावली के दो निहितार्थ हैं। पहला, हमारा परिसंघ राज्यों की किसी संधि या करार की उत्पत्ति नहीं है और दूसरा, कोई प्रदेश इससे पृथक होने के अधिकार का दावा नहीं कर सकता। इस प्रकार अंबेडकर की दृष्टि व्यापक सोच प्रगतिपूर्ण थी। अनेकता में एकता की स्थापना के लिए संविधान की भूमिका किस प्रकार सकारात्मक होनी चाहिए, यह भलीभांति जानते थे।

डॉ. बी. आर.  अम्बेडकर  के अनमोल विचार 

1.   एक  महान  आदमी  एक  प्रतिष्ठित  आदमी  से  इस  तरह  से  अलग  होता  है  कि  वह  समाज  का  नौकर  बनने  को  तैयार  रहता  है .
2.   लोग  और  उनके  धर्म  सामाजिक मानकों  द्वारा;  सामजिक  नैतिकता  के  आधार  पर  परखे  जाने  चाहिए . अगर  धर्म  को  लोगो  के  भले  के  लिए  आवशयक  मान  लिया  जायेगा तो  और    किसी  मानक  का  मतलब  नहीं  होगा .
3.   बुद्धि  का   विकास  मानव  के  अस्तित्व  का  अंतिम  लक्ष्य   होना  चाहिए .
4.   इतिहास  बताता  है  कि  जहाँ  नैतिकता  और  अर्थशाश्त्र   के  बीच  संघर्ष  होता  है  वहां  जीत  हमेशा  अर्थशाश्त्र   की  होती  है . निहित  स्वार्थों   को  तब  तक  स्वेच्छा  से  नहीं  छोड़ा   गया  है  जब  तक  कि  मजबूर  करने  के  लिए  पर्याप्त  बल  ना  लगाया  गया  हो .
5.   आज  भारतीय  दो  अलग -अलग  विचारधाराओं  द्वारा  शाशित  हो  रहे  हैं . उनके  राजनीतिक  आदर्श  जो  संविधान  के  प्रस्तावना  में  इंगित  हैं  वो  स्वतंत्रता  , समानता , और  भाई -चारे  को  स्थापित  करते  हैं . और  उनके  धर्म  में  समाहित  सामाजिक  आदर्श  इससे  इनकार  करते  हैं .
6.    मनुष्य  नश्वर  है . उसी  तरह  विचार  भी  नश्वर  हैं . एक  विचार  को  प्रचार -प्रसार  की   ज़रुरत  होती  है , जैसे  कि  एक  पौधे  को  पानी  की . नहीं  तो  दोनों  मुरझा  कर  मर  जाते हैं .
7.    सागर  में  मिलकर  अपनी  पहचान  खो  देने  वाली  पानी  की  एक  बूँद  के  विपरीत , इंसान  जिस  समाज  में  रहता  है  वहां  अपनी  पहचान  नहीं  खोता . इंसान  का  जीवन  स्वतंत्र  है . वो  सिर्फ  समाज  के  विकास  के  लिए  नहीं  पैदा  हुआ   है , बल्कि  स्वयं  के  विकास  के  लिए  पैदा  हुआ   है  .
8.   हमारे  पास  यह  स्वतंत्रता  किस  लिए  है ? हमारे  पास  ये  स्वत्नत्रता  इसलिए  है  ताकि  हम  अपने  सामाजिक  व्यवस्था , जो  असमानता , भेद-भाव  और  अन्य   चीजों  से  भरी  है , जो  हमारे  मौलिक  अधिकारों  से  टकराव  में  है  को  सुधार  सकें.
शिक्षित बनो , संगठित हों, संघर्ष करो.


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