Monday, October 10, 2011

जब से यह सृष्टि बनी है

जब से यह सृष्टि बनी है, तब से सुख-दुख भी मानव जीवन के साथ लगा हुआ है। सुख की हर कोई आशा करता है, लेकिन दुख से हर कोई पीछा छुड़ाना चाहता है। क्योंकि दुख-कष्ट, क्लेष, बीमारी व समस्याओं का दूसरा नाम है। न चाहते हुए भी हर इंसान के जीवन में कठिनाइयों के दौर आते रहते हैं। मैंने जब इसका विश्लेषण किया, तो पाया कि वास्तु के बदलते ही जीवनशैली में भी परिवर्तन आ जाता है। इंसान का जीवन अनेक शक्तियों से प्रभावित होता है। इसमें वास्तु एक महत्वपूर्ण शक्ति है। वास्तु विषय पांच तत्वों पर आधारित है। यह पांच तत्व, जल-अग्नि-वायु-पृथ्वी-आकाश है।

अगर हर तत्व अपनी सही जगह पर हो जाये तो मानव जीवन की परेशानियों का दौर स्वत ही समाप्त हो जाता है। वास्तु विषय का परम उद्देश्य खुशहाल एवं समृद्धिदायक मकान का निर्माण करना है। वास्तु विषय में भूगर्भीय ऊर्जा, चुंबकीय शक्ति, गुरुत्वाकर्षण बल, अंतरिक्ष से आने वाली किरणें, सूर्य रश्मियां, प्राकृतिक ऊर्जा इत्यादि का मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन करके विभिन्न सिद्धांतों को प्रतिपादित किया गया है। वास्तु विज्ञान किसी भवन को निर्माण करने का एक सशक्त वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। यह समस्त विश्व वास्तु के पंच तत्वों से निर्मित है। वास्तु विषय के आधार पर यह पंचतत्व, जल-अग्नि-वायु-पृथ्वी-आकाश, मानव जीवनशैली को प्रभावित करते हैं। अन्य ग्रहों की अपेक्षा पृथ्वी पर इन पंचतत्वों का प्रभाव अधिक दृष्टिगोचर होता है। यह तत्व प्रकृति में संतुलन बनाये रखते हैं। भवन निर्माण के लिये भूमि के आकार के साथ, दिशाओं के अनुसार, वास्तु के पंच-तत्वों का उचित तालमेल अति-आवश्यक होता है। हमारे आसपास के वातावरण में व्याप्त ऊर्जा शक्तियों में कई तरह की अनिष्ट ऊर्जा शक्तियां भी विद्यमान रहती हैं। इन अनिष्ट शक्तियों से बचने के लिये वास्तु विषय के पंच तत्वों के उचित संतुलन की आवश्यकता पूर्ति के लिये, वास्तु विषय पंच तत्वों के आधार पर दिशाओं के अनुसार सही निर्देश देता है।

जिस प्रकार सूर्य की किरणें अमीर-गरीब एवं किसी जाति विशेष का भेदभाव किये बिना सभी को समान रूप से प्रभावित करती है, उसी प्रकार वास्तु के पंच तत्वों का उचित संतुलन सभी को बिना किसी भेदभाव के समान रूप से प्रभावित करता हैं। यह व्यक्ति की स्वयं की इच्छा शक्ति की योग्यता पर निर्भर करता है कि वास्तु विज्ञान के इस अनमोल खजाने से वह कितना ज्ञान ग्रहण करके इसके उपयोग से लाभान्वित हो सकता है।

वराहपुराण में गीता का महिमा का बयान करते-करते भगवान ने स्वयं कहा हैः

गीताश्रयेऽहं तिष्ठामि गीता मे चोत्तमं गृहम्।

गीताज्ञानमुपाश्रित्य त्रींल्लोकान्पालयाम्यहम्।।

'मैं गीता के आश्रय में रहता हूँ। गीता मेरा श्रेष्ठ घर है। गीता के ज्ञान का सहारा लेकर ही मैं तीनों लोकों का पालन करता हूँ।'

श्रीमद् भगवदगीता केवल किसी विशेष धर्म या जाति या व्यक्ति के लिए ही नहीं, वरन् मानवमात्र के लिए उपयोगी व हितकारी है। चाहे किसी भी देश, वेश, समुदाय, संप्रदाय, जाति, वर्ण व आश्रम का व्यक्ति क्यों न हो, यदि वह इसका थोड़ा-सा भी नियमित पठन-पाठन करें तो उसे अनेक अनेक आश्चर्यजनक लाभ मिलने लगते हैं।

गीता का परम लक्ष्य है मानवमात्र का कल्याण करना। किसी भी स्थिति में इन्सान को चाहिए कि वह ईश्वर-प्राप्ति से वंचित न रह जाए क्योंकि ईश्वर की प्राप्ति ही मनुष्य जीवन का परम उद्देश्य है लेकिन भ्रमवश मनुष्य भौतिक सुख-सुविधाओं के वशीभूत होकर नाना प्रकार से अपनी इन्द्रियों को तृप्त करने के प्रयासों में उलझ जाता है और सिवाय दुःखों के उसे अन्य कुछ नहीं मिलता। भगवद् गीता इसी भ्रम-भेद को मिटाकर एक अत्यधिक सरल, सहज व सर्वोच्च दिव्य ज्ञानयुक्त पथ का प्रदर्शन करती है। गीता के अमृतवचनों का आचमन करने से मनुष्य को भोग व मोक्ष दोनों की ही प्राप्ति होती है।

हमारे चित्त में होता तो है संसार का राग और करते हैं भगवान का भजन... इसीलिए लम्बा समय लग जाता है। हम चाहते हैं उस संसार को जो कभी किसी का नहीं रहा, जो कभी किसी का तारणहार नहीं बना और जो कभी किसी के साथ नहीं चला। हम मुख मोड़ लेते हैं उस परमात्मा से जो सदा-सर्वदा-सर्वत्र सबका आत्मा बनकर बैठा है। इसीलिए भगवान कहते हैं- 'यदि तुम्हारा चित्त मुझमें आसक्त हो जाये तो मैं तुम्हें वह आत्मतत्त्व का रहस्य सुना देता हूँ।'

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